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Jaigurudev news - 7.2.2011


वर्तमान समय में सभी परेषान नजर आ रहे हैं। चाहे पैसे वाले हों, ओहदे
वाले हों या सामान्य वर्ग हो, सभी के होठों पर एक ही प्रष्न है कि आगे
क्या होगा। सभी में एक प्रकार का भय सा व्याप्त है, डर रहे हैं कि न जाने
अब क्या होने वाला है। लोग आषंकाओं से भरे हुए  हैं, भयभीत हैं, नौकरी
हो, व्यापार हो, मार्ग हो, तीर्थ स्थान हो, देवी-देवताओं के मन्दिर हों
या घर चारों ओर असुरक्षा की भावना व्याप्त है। हर कहीं भय का साम्राज्य
है। इसका उत्तर किससे मांगा जाए? क्या राजा से? लेकिन उनका जीवन तो सबसे
अधिक असुरक्षित है, वे ही देष में सबसे अधिक सुरक्षा घेरे मंे रहते हैं।
पूंजीपति भी डरे हैं और ओहदे वाले भी डरे हुए हैं। तो क्या इसका उत्तर
साधरण जनता या गरीब किसान देंगे? नहीं, क्योंकि वे तो स्वयं ही त्रसित
हैं।

बाबा जयगुरूदेव की आवाज

 कर्मों की गहन गति है। इसे योगी पुरूष ही समझते हैं। आपको ये नहीं बताया
गया कि मतदान देने का मतलब क्या है? मतदान यानि बुद्धि का दान। आप किसी
को भी अपरा मतदान देते हैं इसका मतलब ये है कि आप उसके हर अच्छे-बुरे
कर्म में समर्थन देते हैं आपने मतदान देकर लोगों को दिल्ली, लखनऊ पटना,
जयपुर, भोपाल आदि स्थानों पर भेजा। अब वो तो जो भी अच्छा बुरा करेंगे तो
आप को दुख भोगना पड़ेगा। इस रहस्य को आपने समझा नहीं। अब आप चिल्लाओ कोई
सुनने वाला नहीं है। आपको चाहिए कि अच्छे चरित्रवान, सत्य और अहिंसावादी,
निःस्वार्थ काम करने वालों को ले आते तो सुख मिलता। सुख मिलने वाला नहीं
है आपको। महापुरूषों ने कहा है किः

कर्म प्रधान विष्व रचि राखा
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।

अपने  लिए कर्म के अलावा मनुष्य को दूसरों के कर्मों को भी भोगना पड़ता है
ऐसा ईष्वरीय विधान है। फिर कहा है किः-

यह रहस्य रघुनाथ कर, वेगि न जाने कोय।
से जाने जो गुरू कृपा, सपनेहुं मोह न होय।

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Baba Jaigurudev said be vegetarian

गुरू जनु आवन को हैं, भये नभ मण्डल लाल।

जयगुरुदेव सत्संग के प्रारम्भिक दिनों में प्रेमी एक प्रार्थना गाते थे कि- गुरू जनु आवन को हैं, भये नभ मण्डल लाल। गुरू चेतन है। उसकी बैठक मनुष्य शरीर में दोनों आंखों के पीछे है। भजन ध्यान करके साधक अपनी चेतनता को सिमटा कर दोनों आंखों तक जब ले आता है फिर जीवात्मा धीरे से शरीर से अलग हो जाती है। और उपर के दिव्य मण्डलों का सफर करने लगती है। इसी क्रिया को जीते जी मरना कहते हैं। मन तीन प्रकार का होता है-पिण्डी मन, ब्रह्माण्डी मन तथा निज मन। पिण्डी मन शरीर में तीसरे तिल के नीचे वाले भाग में काम करता है। पिण्डी मन शरीर में तीसरे तिल के नीच ेवाले भ्ज्ञाग में काम करता है। इसकी वासनायें मलिन होती है तथा इसकी प्रवृत्ति बाहरपमुखी औश्र नीचे की ओर हेाती हे। इसका सम्बन्ध इन्द्रियों के साथ होता हे। आत्मा का इसके साथ्ज्ञ गहरा सम्बन्ध होने से आत्मा नीचे आ जाती है और मैली हो जाती है। ब्रह्माण्डी मन की इच्छायें अच्छी होती हैं और इसकी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी और ऊपर की ओर होने के कारण यह आत्मा को उपर उठने में सहायता देता है तथा यह ब्रह्माण्ड में का मकरता हे। निज मन दूसरे पद यानी त्र...