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सबसे अधिक पापी



एक बार देवताओं की सभा हुई। अनेक विषयों पर
चर्चायें हुईं। इस बात पर भी निर्णय लिया गया कि जो सबसे पापी हो उसे
देवताओं की सभा में आने से रोक दिया जाए। विचार-विमर्श के बाद यह तय हुआ कि
गंगा जी सबसे अधिक पापी हैं। संसार के जीव जो गंगा जी में स्नान करते हैं
सबके पापों को वो ले लेती हैं। इसलिए सबसे अधिक पापी गंगा महारानी को
ठहराया गया।

गंगा जी अपना स्पष्टीकरण देने के लिए खड़ी हुईं और हाथ
जोड़कर विनम्र भाव से बोलीं कि मैं महापापिनी नहीं हूं। देवताओं के पूछने पर
उन्होंने बताया कि संसार के मलीन जीवों का पाप मैं लेती तो अवश्य हूं जो
मुझमें स्नान करते हैं मगर उन पापों को अपने पास नहीं रखती हूं। मैं समस्त
पापों को ले जाकर समुद्र में डाल देती हूं।

गंगा महारानी पाप मुक्त
घाषित हुई और देवताओं ने समुद्र को महापापी बताया। समुद्र ने जब ऊपर आये
संकट को देखा तो खड़े होकर दीन भाव से बोले कि मैं बिलकुल पापी नहीं हूं।
गंगा जी जिन पापों को मुझे लाकर देती हैं उन्हें मैं मेघराज (बादल) को देता
हूं। इस प्रकार मैं निष्कलंक रहता हूं।

देवताओं ने समुद्र देवता
के स्पष्टीकरण को सुनकर अपनी सहमति दी और फिर यह निश्चय किया गया कि मेघराज
जी पापों के भण्डार हैं और इनको सभी में आने से रोक दिया जाए।


मेघराज यह सब कैसे बर्दाश्त करते। तुरन्त खड़े होकर बुलन्द आवाज में बोले कि
मैं कैसे पापी हो सकता हूं? देवताओं ने कहा कि आप अपनी सफाई पेश करें तो
मघराज बोले कि - संसार के पापी जीवों का पाप लेकर गंगा जी समुद्र को जो
देती हैं और सागर देवता उन पापों को मेरे पास भेजे देते हैं मैं चुपचाप उन
सभी पापों को लेकर इस दुनिया पर ही बरसा दिया करता हूं फिर मेरे पास कुछ भी
नहीं रह जाता।

परमपूज्य स्वामीजी महाराज ने
इस घटना को सुनाते हुए कहा कि तुम्हारे कर्म बरस रहे हैं। कर्म तो तुम
अच्छे करते नहीं हो और चाहते हो कि सुख मिले तो यह कैसे हो सकता है? - (21
दिसम्बर 1977)

 

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