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गुरू जनु आवन को हैं, भये नभ मण्डल लाल।

जयगुरुदेव सत्संग के प्रारम्भिक दिनों में प्रेमी एक प्रार्थना गाते थे कि-

गुरू जनु आवन को हैं,
भये नभ मण्डल लाल।

गुरू चेतन है। उसकी बैठक मनुष्य शरीर में दोनों आंखों के पीछे है। भजन ध्यान करके साधक अपनी चेतनता को सिमटा कर दोनों आंखों तक जब ले आता है फिर जीवात्मा धीरे से शरीर से अलग हो जाती है। और उपर के दिव्य मण्डलों का सफर करने लगती है। इसी क्रिया को जीते जी मरना कहते हैं।

मन तीन प्रकार का होता है-पिण्डी मन, ब्रह्माण्डी मन तथा निज मन। पिण्डी मन शरीर में तीसरे तिल के नीचे वाले भाग में काम करता है। पिण्डी मन शरीर में तीसरे तिल के नीच ेवाले भ्ज्ञाग में काम करता है। इसकी वासनायें मलिन होती है तथा इसकी प्रवृत्ति बाहरपमुखी औश्र नीचे की ओर हेाती हे। इसका सम्बन्ध इन्द्रियों के साथ होता हे। आत्मा का इसके साथ्ज्ञ गहरा सम्बन्ध होने से आत्मा नीचे आ जाती है और मैली हो जाती है। ब्रह्माण्डी मन की इच्छायें अच्छी होती हैं और इसकी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी और ऊपर की ओर होने के कारण यह आत्मा को उपर उठने में सहायता देता है तथा यह ब्रह्माण्ड में का मकरता हे। निज मन दूसरे पद यानी त्रिकुटी का एक कतरा है औश्र इसके अन्दर त्रिकुटी के नीचे की समस्त रचना का बीज है। सत्संगी को इन तीनों मन पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है तभी ऊपर आगे का रास्ता साफ होगा।

तुम भजन करते हो तो भजन करने वाले का स्वभाव नम्र होना चाहिए। सन्तमत दीन गरीबी का मत है। प्रेम और नम्रता के साथ एक दूसरे की जाहिरी गलतियों या दोषों को भुला देना चाहिए और आपसी मतभेदों को नजर अन्दाज करना चाहिए। 

जो सत्संग में फूट का बीज बोते हैं वे सही माने में सन्तमत के सत्संगी नहीं हैं। ऐसा सत्संगी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले लड़के के तरह है और उससे बचते रहना चाहिए। सत्संग में नेता बनने की भवना नहीं होनी चाहिए। सत्संग में एक ही नेता होता है वह है गुरू समरथ गुरू ही एक घाट पर शेर और बकरी को बैठाकर पानी पिला सकता है। जो नकल करेंगे उनको धोखा हो जाएगा और उनका नुकसान भी हो जाएगा। इसलिए सत्संग में बैठकर अपना लक्ष्य भजन का होना चाहिए।

परमात्मा जिसे हम काल भगवान भी कहते हैं वही हमारे भाग्य विधाता हैं जो कुछ भी कर्म हम मनुष्य शरीर में करते हैं उसका फल अगले जन्म का भाग्य बन जाता है। इस कर्म का कुछ हिस्सा हमारे सामान्य कोष में जमा हो जाता है ताकि कभी हमारे कर्म खत्म हो जायं तो उस कोष में से प्रारब्ध बनाया जा सके। कर्म के बिना काल भगवान किसी भी आत्मा को शरीर के बन्धन में नहीं रख सकते और बगैर काया के कर्म नहीं हो सकता। ये तो काल भगवान की मर्जी है कि वो संचित कर्मो के कोष में मिला दें। जो दैनिक जीवन में हम अच्छे बुरे कर्म करते हैं उन्हें क्रियामान कर्म कहा जाता हे।

प्रारब्ध के प्रति हम सब विवश हैं और प्रारब्ध कर्म भोगने पड़ते हैं। हर स्वांस पर कर्मो का बीज बाने के लिए हम स्वतंत्र हैं। अच्छा करें या बुरा करें कर्म फल अवश्य मिलेगा। अच्छा करेंगें तो स्वर्ग बैकुण्ठ में स्थान मिलेगा और यदि बुरा करेंगे तो नरकों और चैरासी लाख योनियों में सजायें भुगतनी पड़ेंगी।

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