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jaigurudev news-5.7.11


कहावत है कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत'। आज देश की राजनीति में हर प्रकार की
और हर क्षेत्र में अति हो गई है तो अब यह निश्चित है कि कुछ न कुछ होगा।
जब रावण के आंतक से त्रेता युग में ऋषि, मुनि, देवता सब बुरी तरह त्रस्त
हो गए थे तो उनकी अन्तरआत्मा से यही आवाज निकली किः-
अब जनि राम खेलावहु येही
       अर्थात उन्होंने भगवान राम से प्रार्थना किया अब इसे मार दो ताकि आतंक
मिट जाए।
       गुरू पूर्णिमा का सत्संग कार्यक्रम 12 से 16 जुलाई तक होगा और तैयारियां
जोरों के साथ मथुरा में हो रही हैं। सभी लोगों को शाकाहारी होने का
प्रचार करने का आदेश बाबा जी ने प्रेमियों को दिया है उसमें बाबा जी का
कुछ संकल्प है जीवों को नर्कों और चौरासी में जाने से बचाने के लिए। बाबा
जी ने कहा था किः-
सतयुग आ रहा है और कलयुग जा रहा है। जिस समय दोनों की टक्कर होगी उसमें
बीसों करोड़ लोग साफ हो जायेंगे।
बाबा जी ने कहा
       सत्संगी अपनी निरख-परख बराबर करते रहें। काल का जोर चल रहा है। सबको
सत्संगी नहीं समझना नहीं चाहिए। ऐसी-ऐसी तरंगें और अच्छायें लेकर लोग आते
हैं कि पूरी नहीं हुईं तो चले जाते हैं। सत्संग में धैर्य से रहो, वचनों
को याद करते रहो। धीरज खो दिया, जल्दबाजी की तो चले जाओगे। संत समर्थ हैं
और सब कुछ कर सकते हैं पर वो सदा अनुकूलता में रहते हैं और धीरे-धीरे
सबको प्रेम के बन्धन में बांधते हैं। उनका निस्वार्थ प्रेम होता है और
तुम उनसे प्रेम करोगे तो हर वक्त माहौल अच्छा बना रहेगा।
       महात्माओं ने कहा है कि
तप से चूके राज मिलत है , राज से चूके नरका।
       बड़े-बड़े राजे-महाराजे, बादशाह अभी नर्कों में मार खा रहे हैं। उन्हें
यातनायें भोगते-भोगते कितने युग बीत गए और अभी तक नर्कों से बाहर नहीं
निकले। बिना संत सतगुरू के कोई भी हस्ती जीवों को बचा नहीं सकती है।
औतारी शक्तियां कुछ नहीं कर सकतीं। वो कहती हैं कि अच्छा-बुूरा करो तुम
कर्म करने में स्वतंत्र हो किन्तु अच्छे-बुरे कर्मों का फल हम देंगे।

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गुरू जनु आवन को हैं, भये नभ मण्डल लाल।

जयगुरुदेव सत्संग के प्रारम्भिक दिनों में प्रेमी एक प्रार्थना गाते थे कि- गुरू जनु आवन को हैं, भये नभ मण्डल लाल। गुरू चेतन है। उसकी बैठक मनुष्य शरीर में दोनों आंखों के पीछे है। भजन ध्यान करके साधक अपनी चेतनता को सिमटा कर दोनों आंखों तक जब ले आता है फिर जीवात्मा धीरे से शरीर से अलग हो जाती है। और उपर के दिव्य मण्डलों का सफर करने लगती है। इसी क्रिया को जीते जी मरना कहते हैं। मन तीन प्रकार का होता है-पिण्डी मन, ब्रह्माण्डी मन तथा निज मन। पिण्डी मन शरीर में तीसरे तिल के नीचे वाले भाग में काम करता है। पिण्डी मन शरीर में तीसरे तिल के नीच ेवाले भ्ज्ञाग में काम करता है। इसकी वासनायें मलिन होती है तथा इसकी प्रवृत्ति बाहरपमुखी औश्र नीचे की ओर हेाती हे। इसका सम्बन्ध इन्द्रियों के साथ होता हे। आत्मा का इसके साथ्ज्ञ गहरा सम्बन्ध होने से आत्मा नीचे आ जाती है और मैली हो जाती है। ब्रह्माण्डी मन की इच्छायें अच्छी होती हैं और इसकी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी और ऊपर की ओर होने के कारण यह आत्मा को उपर उठने में सहायता देता है तथा यह ब्रह्माण्ड में का मकरता हे। निज मन दूसरे पद यानी त्र...